कफील मियां बड़े ही रंगीन मिजाज के नौजवान थे ! जिन्दगी को पूरी शान से जीते थे….पंतगबाजी करना, कबूतर उड़ाना और इतवार के दिन मुर्गो की लड़ाई देखना उनका पसंदीदा शौक थे …..सर्दी हो या गर्मी या बरसात लोग अपने कपडे समय के हिसाब से बदल लेते है पर मजाल की कफील मियां अपने तहमद , कुरता और टोपी को बदल दे!! …..
किसी ज़माने में कफील मियां के दादा परदादा लखनऊ के नवाब खानदान में शुमार होते थे …..धीर धीर ऐयाशियो में…. घर बार , जमीन जायदाद सब कुछ बिक गया और उनके पास कुछ ना रहा….मियांजी के वालिद तो कसम खा कर पैदा हुए थे ,की भूखे मर जायंगे पर किसी की चाकरी ना करेंगे …..बाप दादाओं का छोड़ा हुआ थोडा बहुत मॉल(बर्तन भांडे ,काठ कबाड़ा ) उन्होंने अपनी जिन्दगी में बेच बेच कर निबटा दिया …और खुदा का बुलावा आने पे, वोह कफील मियां के इक हाथ में कटोरा और दुसरा हाथ उनकी अम्मी जान के हाथ में पकड़ा कर, अल्लाह को प्यारे हो गए …..वक़्त आने पे, उनकी अम्मी जान ने भी यह हाथ छोड़ दिया और कफील का हाथ उसकी खाला के हाथ में पकड़ा अपने शोहर के साथ जन्नतनशी हो गयी …
इतनी सारी दुश्वारियो और किल्लतो के बावजूद भी कफील मियां ने, ना कभी रंजो गम मनाया और ना ही कभी कोई अफ़सोस की शिकन उनके माथे पे उभरी …बचपन में गिल्ली डंडा , कंचे और पतंग बाजी का उन्होंने भरपूर आनंद लिया …और अगर कुछ ना मिलता तोपुरानी साइकिल के घिस्से हुए टायर को डंडा मारकर चलाते हुए अपने खेलने के शौक पुरे कर लेते और इस तरह वोह अपने बचपन को ,शाही अंदाज में पूरा करते हुए जवानी की दहलीज पे जा पहुंचे!!……..
पढाई लिखाई के नाम पे कफील मियां कुछ “अलिफ़ , बे , ते “ और कुछ अल्फाज उर्दू के लिख पढ़ लेते थे …..यह सब भी उन्हें अपनी गली के मदरसे की बदोलत महुसर हुआ था … मदरसे के मौलाना ,उनके वालिद के अच्छे वाफिककार थे!! ….इसलिए जब भी मौका मिलता, मौलाना ,कफील मियां को पकड़ घसीट के, कुछ अच्छी बाते सिखा देते और लगे हाथ थोडा बहुत पढाई लिखाई करा देते …..मौलाना ने, कफील मियां को इक सच्चे मुसलमान की जिम्मेदारियों और फर्ज का पाठ अच्छी तरह से सीखा दिया था ...इन सब का कफ़िल मियां पर यह असर हुआ की …. वोह जब जवान हुए तो इमान और धर्म के पक्के इन्सान थे …कभी किसी के पैसे और औरत पे बुरी नजर ना डालते और हर जुम्मे के जुम्मे अल्लाह को जरुर याद कर लेते …..
कफील मियां के खालुजान जुम्मन मियां ने ,उन्हें गुजर बसर करने के लिए, अपनी तरह का इक ठेला दिला दिया ..जिसपे कफील गर्मियों में फल (सेब , केला, लीची ,आम ) बेच लेते और सर्दी आने पे इसी ठेले पे वोह अंडे और ऑमलेट की महफ़िल रोशन कर लेते …..मेरठ के बेगम ब्रिज के पास, इक सराए के आहते के इक टूटे फूटे मकान में कफील की गुजर बसर किसी तरह हो रही थी……
कफील मियां का नाम, पुरे बेगुम ब्रिज के ठेले वालो में, “ठेले वाले शायर” के रूप में मशहूर था.…उनके पक्के ग्राहक भी जानते थे… अगर बढ़िया फल चाहिए तो कफील मिया के ठेले पे जाओ… उनके इक दो शेर सुनो और बढ़िया सेब,केला,आम …. बिना छांटने की मेहनत के ले आओ ...यही सिलसिला सर्दियो में होता ,अगर लजीज ऑमलेट का शौक फरमना हो ….तो…. उनका इक तडकता फडकता शेर झेल लो और बदले में मस्त ऑमलेट और गर्म गर्म अन्डो का शाही स्वाद लो …..
कफ़िल मियां , यारो के यार थे …दिन में कड़ी मेहनत करते …..पर रात को वक़्त निकाल अपने मौहल्ले की चोपाल पे, अपने दोस्तों के साथ शेर और शायरी की महफ़िल भी रोशन करते …. उस वक़्त कफील अपने साथ कुछ ना बिकने वाले फल , अंडे ले आते थे और ….अपने यार दोस्तों को पेशे खिदमत कर देते … कफ़िल मियां की, अपने दोस्तों को सख्त ताकीद थी… की धंधे के वक़्त यारी दोस्ती नहीं चलेगी ….हाँ धंधा बंद होने के बाद ….वोह शाम को महफ़िल में जरुर हाजिरी देते ……
सब उनकी इस जरानावाजी की दिल खोल कर वाह वाही करते और उनके आधे अधूरे , घिसे पिटे शेरो और नज्मो पे ….इरशाद और वाह वाह की बरसात कर देते ……सब मस्त मौला ,वंहा पर अपनी जिन्दगी के गमों को अपने लड्खाडाते शेरो और टूटी फूटी नज्मों से ख़ुशी के नूर से सजा लेते ….इस बहाने यारो को , तुकबंदियो के साथ साथ कुछ खाने पिने को मिल जाता…. जिसकी जैसी हैसियत होती वोह अपने ठेले का बचा कूचा सामान इस महफ़िल में ले आता ….
अल्लाह के फजल से सब कुछ ठीक ठाक चल रहा था …..ना जाने, किस शैतान की बुरी नज़र कफ़िल की हंसती खेलती जिन्दगी पे पड़ गयी ……
हलकी सी सर्दी का मौसम था और कफील मियां ने अपना ठेला अभी अभी बाजार में रोशन किया था …..की इक खनखनाती शहद जैसी मीठी आवाज उनके कानो में पड़ी …….
क्या आप हमें, कुछ बना कर खिला सकते है …..हम थोडा जल्दी में है …काफ़िल मियां ने सामने देखा तो इक मोहतरमा बुर्के में… उनके ठेले के पास खड़ी थी ……कफील उनकी आवाज की मिठास के ऐसे दीवाने हुए …..की उनके हाथो ने इक जादूगर की तरह फटा फट….इक ऑमलेट तैयार कर, उस नाजनीन की खिदतमत में पेश कर दिया ……
वैसे तो कफील मियां इमान और धर्म के पक्के थे…. की किसी की बहु-बेटी पे नजर तक ना डालते थे …..ना जाने उस आवाज के जादू से बंधे …वोह उस नाजनीन की इक झलक पाने को बैचेन हो गए!!…..
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