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जब मुझसे मोहब्बत है ही नहीं
फिर किसके लिए यह आसूँ बहाती हो
जब इक़रार करने की हिम्मत है ही नहीं
फिर रास्ते में आँखे किसके लिए बिछाती हो ….
मैं आऊँ भी तो कैसे
तुम भी आवाज देकर कहाँ बुलाती हो
काश कोई तो करता मोहब्बत तुमसे
आज जिनके लिए तुम मुझे ठुकराती हो
जब जब उठता है सीने में दर्द तुम्हारे
फिर क्यों नए नए बहाने बनाती हो …..
बिना चाहत ,बिना उम्मीद, बिना शर्त की
तुम मोहब्बत की नयी इबादत बनाती हो
जिसमे अपने बनाये उसूल मुझपर लगाती हो
क्यों एक सीधे साधे आशिक को
अपनी इन उलझी बातों से उलझाती हो ….
कौन कैसे कर सकता है मोहब्बत
बिन देखे , बिन जाने अपने महबूब को
जब तू ही नहीं होगी मेरे सामने
तो कैसे हल्का करूँगा अपने दिल के सरुर को
मोहब्बत सिर्फ मोहब्बत होती है
कोई सच्ची या झूठी नहीं
क्यों इसे अपने अध्यात्म के ग़रूर में उलझाती हो ……
ख़ाक में मिल जाएगा एक दिन यह जिस्म भी
नहीं रहेगा याद किसी को तुम्हारा नाम भी
तब याद आयेगा तुम्हे यह ज़माना फिर कभी
तब यही बोलोगी अपने दिल से
मैंने भी उससे मोहब्बत क्यों नहीं की …..
By
Kapil Kumar
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