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प्रेम साहित्य का असमायिक अंत !

Awara Masiha - A Vagabond Angel
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कपिलराज” और राज्य नर्तकी “वसुंधरा” का विशेष स्थान था !

वसुंधरा अत्यंत ही रूपवती और इक भाव कुशल नर्तकी थी ..जिसकी इक झलक पाने के लिए राज्य का धनवान  से निर्धन तक और छोटे से लेकर बड़ा तक सब बैचेन रहते की, किसी तरह इस रूपसी के दर्शन हो जाये और बड़े सोभाग्य वालो को उसकी नृत्य कला देखना नसीब होता था…जन्हा सारा राज्य वसुंधरा का दीवाना था ,पर उसका कोमल ह्दय तो सिर्फ राज्यकवि के लिए ही धडकता था!….

कपिलराज की श्रृंगार रस में डूबी हुयी कवितायों राजा और दरबारियों का मन मोह लेती और उसकी कविताओ पे थिरक वसुंधरा अद्भुत नृत्य नाटिका पेश करती तो पूरा राजदरबार मदहोश हो उठता!

राज्य के वातावरण में इक मीठी मधुर लहरी की तरंग फैलती,जो मनुष्यों के साथ साथ पशु पक्षियों को भी अपनी तरफ आकर्षित कर लेती ….उस वक़्त पूरा राज्य प्रेम संगीत में डूब जाता ..ऐसे लगता जैसे इंद्र की सभा धरती पे सजी रही हो…..जिसमे गन्धर्व गा और बजा रहे है और अप्सराये न्रत्य पेश कर रही है.…जब तक यह गायन वादन चलता पूरा राज्य अपने स्थान पर जड़ सा होजाता!

कपिलराज और वन्सुन्धरा राजा बोशिस्त्व के खजाने के दो अनमोल रत्न थे..जिनपे राजा की कृपा और कलाकारों और दरबारियों के अपेक्षा थोड़ी अधिक थी….

राज्य , राजा , राज दरबारी और प्रजा के लिए वोह दोनों अमूल्य थे!! कपिलराज राज्य में जन्हा भी कंही भी जाता इक विशेष आदर और सम्मान प्राप्त करता …

मन ही मन कपिलराज और वसुंधरा इक दुसरे से असाध्य प्रेम करते थे……पर यह प्रेम सिर्फ उनकी आत्मा और मन तक ही सिमित था…...राज्य के नियम और कानून के अंतर्गत कोई भी राज्य कर्मचारी आपस में किसी तरह का सम्बन्ध नहीं रख सकता था….. राज्य नर्तकी के लिए किसी और से प्रेम करना तो वैसे भी वर्जित था….वोह राज्य की सम्पति थी और उसपे सिर्फ राजा का अधिकार था …..

कपिलराज अपनी कविताओ के माध्यम से अपने हदय के भाव वसुब्धरा को सुना देता …. और बदले में वसुंधरा भी मन ही मन कपिलराज की कल्पनाओ में डूब, उसे अपने सपनो का राजकुमार समझ न्रत्य नाटिका को पुरे मनो भाव से करती… वसुंधरा उनपे अपना भाव पूर्ण न्रत्य नाटिका का प्रदर्शन कर अपनी स्वीकृति प्रदान कर देती …..

इस तरह दोनों अपने हदय ही ह्दय में बिना किसी से इस जग में बोले इक दुसरे के ह्दय के भावो को देख और सुन लेते !! समय अपनी धुरी पे घूम रहा था……की इक दिन …

ब्राहमण का आगमन हुआ!!! ……

ब्राहमण शरीर से बड़ा हस्ट पुस्ट और देखने में बड़ा तेजस्वी लगता था…… उसके बड़े से माथे पर चंदन की तीन धारियां खिंची थी ,जो उसकी अभिव्यक्ति के वक़्त उसके ज्ञान को प्रदर्शित करती प्रतीत होती…..हाथो में रुद्राक्ष के कड़े ,बांहों के ऊपर  रुद्राक्ष और लाल धागे के बंधन से बने बाजू बंध और गल्ले में लटकती इक बड़ी मोतियों और रुद्राक्ष से बनी माला, उसके रूप और ज्ञान के ओजस्वी होने की मुनादी करती प्रतीत होती थी!!…..

गीतदेव चन्द्र” है ..मैंतक्षिला से आया हूँ मेने आपके राज्य के बारे में काफी सुना है ,की आप ज्ञान और योग्यता के सही पारखी हैं और उसका उचित मूल्याकन भी करते हैं ….मेरी पहचान तक्षिला में आचर्य “गीतदेव” के नाम से है … मैं आपके राज्य के सबसे योग्य व्यक्ति से शास्त्रथ करना चाहता हूँ ..जिससे आप मेरी योग्यता की  सही परख करके, मुझे अपने राजदरबार में कोई सम्मानीय पद प्रदान करे!!! …..

आज तक इस राज्य में कभी ज्ञान और विज्ञानं की योग्यता को लेकर किसी पे प्रशन चिन्ह ना लगा था??…..सब इक दुसरे की योग्यता की प्रशंशा मुक्त कंठ से करते थे ..उसमे बड़ा या छोटा जैसा कोई भेद भाव ना था और ना ही कभी किसी ने यह जतलाने का प्यास किया की वोह दुसरे से श्रेष्ठ है!!….

ऐसे में ब्राहमण की चुनोती को स्वीकार करना इक कठिन कार्य था ..पर राज्य की मर्यादा और शान रखने के लिए ..किसी को तो यह चुनोती स्वीकार करनी ही थी!

.राज्य हित के लिए,कपिलराज ने ब्राहमण की चुनोती को सहश स्वीकार कर लिया!…..

राजकवि ने आज से पहले तक सिर्फ अपने ह्दय और मन की आँखों से दुनिया देखि थी पर आज उसका सामना वास्तविकता के कड़े और कठोर धरातल से होने जा रहा था ,जिसका अंदाजा ना तो राजकवि को था और न ही राजा और प्रजा को ????

राजकवि ने अपनी मन के भावो को वयक्त करती श्रृंगार रस में डूबी, इक कविता, जिसमे चाँद के सामन सुन्दर प्रेयसी के विरह की प्रेम कथा ,कपिलराज ने राधा और कृषण के माध्यम से सुनाई!!….की ,कैसे राधा, कृषण के प्रेम में वसीभूत होकर उनके आने की बाट जोह रही है…कृषण के इंतजार में राधा अपना दुःख , दर्द और विरह की वेदना अपने पास बैठ पशु –पक्षियों को सुना रही है और राधा का दर्द और वेदना सुन,कैसे सब पशु-पक्षी, अपने-अपने अशु बहा रहे है!! कविता ख़त्म होने पर, राजा और दरबारियों ने कपिराज की प्रशंशा के शोर से राज्य को चारो दिशाओ में गूंजा सा दिया!!! ….

ब्राहमण गीतदेव ने शांत भाव से कविता का आनंद लिया!!

कविता पाठ ख़त्म होने पर सारे राजदरबार की निघाहे गीतदेव की और मूड गयी की…. अब ब्राहमण इस चुनौती के बदले क्या प्रदर्शित करेगा ?

गीतदेव अपने आसन से उठ इक शेर की भांति चलता हुआ दरबार के बीचो बिच में आया….पहले उसने अपने गले की माला को छुआ फिर राजा के आगे अपना शीश झुकाया और अपने दुपट्टे को कंधे पे डालते हुए…..इक ललकार भरी आवाज में कपिलराज की तरफ मुखातिब होकर बोला … उतम! ..अति उत्तम!! …

ब्राहमण गीतदेव आगे बोला…..

इस कविता के माध्यम से कहा गया प्रेम इक दिखावटी,बनावटी और रूमानी है इस तरह के प्रेम का इस जगत में ना कोई मूल्य है ना ही इसकी कोई पहचान?…

क्या कविवर मुझे और इस दरबार को बता सकेंगे की…. उन्होंने कभी किसी से इतना प्रेम किया है? जिसका वर्णनन इनकी रचना में है अगर किया है तो वोह कौन सी रूपवती है?..जो इक राजकवि को इतना कमजोर और मजबूर बना सकती है ?

क्या वोह बता सकेंगे की….. प्रेम के विरह में डूबी राधा का अस्तित्व इस जगत में कभी था या नहीं ?यह राधा कौन थी? उसके कृषण के प्रति इतने गहरे प्रेम का क्या रहस्य था और उसके प्रेम के बारे में कविवर कैसे जानते है ?

क्या वोह यह बता सकते है की…. सिर्फ राधा ही कृषण के प्रेम में दिवानी होकर उनकी बाट क्यों देख रही थी ?क्या कारण था की कृषण को कोई तड़प या वियोग की आग ना थी ?

क्या किसी रूपवती स्त्री की सुन्दरत किसी चाँद की अपमा से दी जा सकती है?….जब की हम सब जानते है की चाँद स्थिर नहीं है उसका आकार दिन प्रतिदिन बदलता है फिर किसी रूपसी का चेहरा चाँद के समान कैसे सुन्दर हो सकता है ?

कैसे कोई रूपवती?? अपने प्रेमी के इंतजार में पशु पक्षियों से बाते कर उन्हें अपनी पीड़ा बता सकती है ….क्या ऐसा वास्तव में होता है अगर हाँ तो क्या कविवर ऐसा करके दिखा सकते है ?

यह सब मनगढ़त , बेबुनियाद और झूट से भरी रचनाये हैजिनका हमारे दैनिक जीवन में कोई मूल्य नहीं!!!

ब्राहमण गीतदेव के प्रश्नों को सुन दरबार में सन्नाटा छा गया ……

कपिलराज ने अपनी  रचनाओ में, अपनी कल्पना में वसुंधरा को अपनी प्रेयसी रखा था जिसके प्रेम का  इस मिथ्या जगत से कोई नाता ना था ..वोह कैसे अपने प्रेम का इजहार भरे दरबार में करके अपनी प्रेयसी की मान मर्यादा को खंडित कर देता ..उसका प्रेम तो त्याग और विरह की अग्नि में तप तप कर निखरा था ,उसमे सिर्फ समर्पण और त्याग की अभिवयक्ति थी ….किसी तरह की अभिलाषा की उसमे लेश मात्र भी गुंजाईश ना थी ….कपिलराज का बावरा मन रचना करते वक़्त जीवन की उलझनों और वास्तविकताओ के ताने बने से कोसो दूर रहता था…वोह अपनी कल्पनाओ में अपनी प्रेयसी के संग प्रेम विहार में डूब अपनी रचनाओ को जन्म देता ….

किसी को कभी यह आभास भी न होता….श्रृंगार रस में डूबी रचनाओ का रचियता अपने जीवन में कितना रस विहीन है…..जो अपने प्रेम का इजहार अपनी प्रेयसी तक से नहीं कर सकता…..वोह कैसे अपनी कल्पनाओ के सहारे सिर्फ अपनी रचनाओ में प्रेमी और प्रेमिका के माध्यम से अपने निर्मल प्रेम को जीवित करके आनंद की अनुभूति ले लेता है ..…

ब्राहमण गीतदेव पुरे जोश और उन्माद में इक खूंखार आदमखोर की तरह भरे दरबार में टहलने लगा……

राजन इन कविताओ का जीवन की कठनाईयो और सचाइयो से दूर दूर तक कोई सम्बन्ध नहीं है…..इस तरह की  कविताये और रचना ,राज्य के लोगो को अकर्मण , लाचार , लोभी , कामी और निरंकुश बनाती है…..आपके राज्य में लोग जीवन की दुश्वारियो से लड़ने के बजाय, इन रास रंग में डूब इसे राज्य को सिर्फ नरक की और ले जा रहे है

….ब्राहमण की बात सुन दरबारियों के रक्त में उर्जा और विश्वास का नया संचार हुआ ..जो रक्त प्रेम और श्रृंगार रस में भीग कर इतने वर्षो से शांत सा पड़ा था …

अचानक ब्राहमण गीतदेव के ओजस्वी भाषण से खोल उठा…..

शायद मनुष्य की कमजोरी है, जब उसका जीवन आनन्दमय होता है वोह अपने आनंद को त्याग कर ,अपने को दुखी करने के लिए, नए नए तरीको को जाने अनजाने में खोज ही लेता है …..

जिस कविराज की इक इक पंक्ति पे ,राजदरबार के लोग उन्हें तालियों और प्रशंसा के रस से भाव विभोर कर देते थे!! आज उस कविराज की तरफ कोई द्रष्टि उठाकर देखने में अपनी मर्यादा का हनन समझ रहे थे…..

उन्हें लगता था उनके जीवन का इतना  बहुमूल्य समय इन बेकार की कवितो और रचना में व्यर्थ हो गया …..

कुछ दरबारी जो मन ही मन राजकवि और राजनर्तकी वसुंधरा के प्रेम को समझते थे उन्होंने इस मौके का पूरा उपयोग कर लिया और राजा बोधिसत्व के समक्ष उन्होंने ब्राहमण “गीतदेव” के लिए राजकवि वाले आसन और उन्हें पद की मांग रख दी ….

राजा बोधिसत्व सब कुछ जानते और बुझते हुए भी खामोश थे…..जब जन समर्थन राज्यकवि कपिलराज के विरुध और ब्राहमण गीतदेव के पक्ष में था….तो उन्हें भी राज्य की मर्यादा का पालना करते हुए ..कपिलराज को आसन छोड़ने को कहने के लिए बाध्य होना पड़ा …..

कपिलराज ,बुझे मन, भीगी आँखों और थके कदमो से राजदरबार से बहार निकल आया ..आज वास्तविकता की क्रूरता ने कल्पना की शीलता ,सोम्यता और निर्दोषता का भरपूर बलात्कार किया था ….

लगता था कपिलराज की हुयी जग हंसाई ,चाँद भी देखने की हिम्मत न दिखा  सका और बादलो के पीछे जाकर छिप गया!!! …..

By

Kapil Kumar

Awara Masiha

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