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क्या इक औरत और आदमी दोस्त हो सकते है ?

Awara Masiha - A Vagabond Angel
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जब से मानव का विकास हुआ है और समाज में औरत को पुरुष के बराबर आजदी मिली है तब से यह प्रशन बार बार उठता आया है ..की…. क्या इक स्त्री-पुरुष मित्र हो सकते है ?आप में से कई बड़े जोर खरोश में कह सकते है हाँ क्यों नहीं ? बिलकुल हो सकते है …ठीक है मान लेते है आप बड़े आजाद ख्यालात के लोग है पर ऐसे आजदी बोलने, मानने और करने में बड़ी जुदा होती है ….इसका खुलाशा मैं ब्लॉग में आगे करूँगा और आप से प्रशन भी पूछुंगा … जिसके उत्तर में आपकी नीयत , खुलेपन और करनी कथनी का भी पता चलेगा …

मैं भी इक आजद ख्यालात का पुरुष हूँ ..पर जब किसी औरत या लड़की या स्त्री से मित्रता की बारी आती है तो कंही न कंही इक अन्दर का पुरुष उसपे हावी हो जाता है …इस विषय पे लिखने का मेरा विचार कैसे बना ..इसकी भी इक कहानी है …हुआ यूँ ….कुछ दिन पहले मेरी इक महिला मित्र ने मुझसे सवाल किया ..की….

क्या इक स्त्री पुरुष दोस्त नहीं हो सकते अगर नहीं तो क्यों ? ....

मेने कहा हो सकते है ..पर उसके माप दंड बहुत बड़े है ..फिर उसने कहा आप मुझे क्या अपना दोस्त समझते है? ..मैं बोला नहीं ….

मैं तुम्हे पसंद करता हूँ और तुममे मुझे सिर्फ इक अच्छी प्रेमिका या पत्नी नजर आती है ….

उसे मेरी बात से इतिफाक ना हुआ और बोली अधिकतर लोग औरत और मर्द का रिश्ता सिर्फ आग और फूस का समझते है …पर मै ऐसा नहीं मानती …आप भी और लोगो जैसे है जो औरत को सिर्फ भोगने की चीज समझते है  …मेने उसे समझना चाहा ..पर उसे शायद मेरी बात का मर्म समझ ना आया …

उसकी इस बात से मुझे अपनी इक और महिला मित्र से कुछ महीने पहले हुआ वार्तालाप याद आगया ….मेरी इक सहकर्मी थी ..जिसे मै पसंद करता था ..इक दिन बातो ही बातो में मेने उसे अपने दिल का हाल कह डाला ..इसपे वोह बहुत संजीदा हो गई और बोली ..मेने तो आपको सिर्फ अपना दोस्त समझा ….मुझसे इससे ज्यादा की उम्मीद ना करे ….मेने भी उसके आगे कुछ ना कहा और बात वन्ही ख़त्म हो गई …

पर हम दोनों की बोलचाल बिना किसी झिझक के आगे भी चलती रही ….उसकी जिन्दगी में कई मर्द आए और गए ..जिनमे कई लोगो से उसने मेरा परिचय भी कराया …देखते ही देखते उस बात को 10 साल बीत गए …उसकी जिन्दगी में कई पुरुष आए और गए ..पर उसकी मेरी दोस्ती अपनी जगह टिकी रही …

इक दिन उसने मुझे अपने नए प्रेमी से मिलवाया जिसको लेकर वोह बहुत संजीदा थी या उसकी उम्र का तकाजा था की वोह उसका आखरी शिकार था …

ना जाने क्यों बातो ही बातो में उसने जिक्र किया की ..मेने भी कभी उसपे लाइन मारी थी और ऐसा कह उसने मुझे बड़ी तीखी नजरो से घुरा …अब मेरी हालत अजीब ..की मैं शर्म से गड जायु या वंहा से रुसवा होकर चला जायुं …पर उसके साथ दोस्ती निभाते निभाते ..मैं भी पक्का धीट हो चूका था …मेने भी बड़ी बेशर्मी से कहा ….

हाँ बिलकुल मारी थी ..जब तुम इस लायक थी ..अब मेरी पसंद अलग हो गई है …उसे इस जवाब की आशा नहीं थी …उसने भी बेशर्मी से अपने खींसे निपोरे और बोली रहने दे ….अरे रहने दे ….हमें सब पता है ..अंगूर खट्टे है ..

मेने उससे कहा ..देख मेने लाइन मारी ..तूने दी नहीं बात कहानी ख़त्म ..पर सोचने की बात यह है तूने मुझसे अपना रिश्ता कायम रखा क्यों ? इसका उसके पास कोई जवाब ना था ..उसे चुप देख मैं बोला ..मैं तेरा दोस्त बना रहा ….इस उम्मीद पे की इक दिन तू मुझे अपना लेगी और तूने मुझसे दोस्ती इसलिए रखी ..की तुझे इक मुफ्त का उल्लू मिल गया जिसका इस्तमाल तू अपने आड़े वाले वक़्त में कर सकती है …

मेरे इस जवाब पे वोह बोखला गई और मुझसे लड़ने लगी की ..मेने उसका कौनसा ऐसा काम किया है या उसने कौन सा मुझसे फायदा उठाया है ..असलियत यह थी ..गाहे बिगाहे ..जब भी उसे कोई छोटी मोटी फेवर लेनी होती ..वोह बड़ी मीठी आवाज बना कर फोन पे बात करती और अपना काम निकलवा लेती और मुझसे भी उसका कम करने में कोई दिक्कत न होती ….

मैं भी सोचता कभी तो मछली फंसेगी ??…आज नहीं तो कल …अगर हम कांटे में चारे के खर्चे का हिसाब लगाने लगे तो मछली पकड़ना बेकार है …..

तो मेरी यह दो महिला मित्रो से हुए सवांद लिखने का अभिप्राय यह था ..की मैं आपको स्त्रीयो की सोच और पुरुष की सोच की इक झलक दिखला दूँ …की ..आखिर इक स्त्री पुरुष मित्र क्यों नहीं बन पाते ?

सबसे पहले हम यह समझे की हम अपना मित्र किसे और क्यों बनाते है …हर किसी के अपने कारण हो सकते है ..उम्र की भिन्न भिन्न पड़ाव पे दोस्ती की परिभाषा बदल जाती है …बचपन में दोस्ती …बिना वजह …बस किसी के साथ यूँही हो सकती है पर जैसे जैसे हम बड़े होते जाते है ..हर चीज प्रैक्टिकल और नफे नुकसान के तराजू से तुलने लगती है …जितनी पक्की और भरोसे की दोस्ती बचपन की होती है …बड़े होने पे उसमे झूट और दिखावा आता जाता है ….

जब दो पुरुष अपनी दोस्ती का धरातल भी अपनी हैसियत , शिक्षा , मान सम्मान के तराजू में रख कर करते है …. फिर किसी महिला से दोस्ती में यही चीजे बदल कर अलग रूप धारण कर लेती है …. जैसे किसी महिला से मित्रता में ..उसके रंग रूप का आकर्षण , पर्सनालिटी या फिर उसका आपके प्रति वर्ताव वयवहार निर्णायक होते है …

बचपन में दोस्ती में किसी नफे नुकसान का मोल तोल कम होता है ..उस वक़्त हम जिसके साथ अच्छा महसूस करते है ..भले ही उसकी माली हालत कुछ भी हो या पढाई लिखाई में वोह जीरो हो या उसकी पर्सनालिटी कैसी भी हो या हमें उससे कोई भी फायदा न हो ..यह सब बाते हम ज्यादा सोच विचार नहीं करते ..पर बड़े होते ही यह सब इक माप दंड बन जाते है ..किसी से बातचीत करने या उससे अपनी बात कहने सुनने या उसे अपने घर बुलाने आदि में ….आज भी हम लोग बचपन की दोस्ते पे भरोसा कर सकते है बनिस्पत उन लोगो के जिन्हें हम जवानी में दोस्ती करते है …..

जब इक महिला और पुरुष दोस्ती करते है ..तो उनमे बच्चो जैसी मासूमियत नहीं होती ..दोनों बचपन की मासूमियत को जवानी की आग में जला कर और ताप कर आए पुरे घाघ और पुराने खिलाडी होते है जिन्होंने घाट घाट का पानी पिया होता है …आदमी औरत की सुन्दरता या उसके आकर्षण से बांध उसके करीब आता है तो औरत भी अपने नफ़े नुकसान का मूल्याकन करने के और आदमी की सामाजिक हैसियत जानने के बाद ही किसी पुरुष को अपने पास फटकने देती है …

जन्हा आदमी का औरत से दोस्ती करने का सिर्फ इक इरादा होता है ..की उसके नजदीक जाना और औरत का आदमी को अपने करीब आने देने का भी सिर्फ इक इरादा होता है …की वक़्त आने पे उसका इस्तमाल करना …

दोनों घाघ अपनी अपनी चालो में लग इक खेल में लग जाते है ….औरत दोस्ती के नाम की रेखा खिंच आदमी को इक निश्चित दुरी पे रखती है और आदमी भी दोस्ती के नाम पे उसके नजदीक आने का बहाना धुन्ड़ता रहता है … जब किसी रिश्ते की बुनियाद ही नफे नुकसान पे टिकी हो तो उसमें वक़्त आने पे अपना रंग दिखाना ही होता है …

यंहा कई लोग बहस कर सकते है की ..सब मामलो में ऐसा नहीं है …तो उसके लिए मैं आगे कुछ प्रशन रखूँगा उनके जवाब ही फैसला करंगे की ऐसा है या नहीं ?यंहा कुछ मामले अपवाद भी हो सकते है ..जिनमे स्त्री पुरुष में दोस्ती होती है ..पर दोनों में दोस्ती होने के लिए कुछ चीजो का होना बहुत जरुरी है …मेरी भी कुछ महिला मित्र है ..जिनसे मेरा कोई प्रेम प्रसंग आदि नहीं …

पर यह भी इक कटु सत्य है …की ..मुझे उनमे कोई आकर्षण नजर नहीं आता? मेने उन्हें कभी औरत आदमी वाली नजर से देखा ही नहीं ..बस यूँही सहकर्मी होते होते …हम लोग आपस में कुछ घूम मिल गए …की हम कुछ बाते शेयर कर लेते है या उनके साथ थोडा ज्यादा फ्री है बस …किसी भी महिला मित्र से मित्रता ..इक हद से ज्यादा नहीं बढ़ सकती ..यह इक कटु सत्य है

आप कितने भी आजाद ख्यालात के हो ..किसी भी सभ्यता में रह ले …इक आदमी और औरत अपने अंदर इक डर , संकोच लेकर ही अपना रिश्ता निभाते है …दो आदमी दोस्त है ..वोह देर रात आए इक साथ बियर या दारू पी कर घर इक दुसरे को छोड़ने घर जाए ……या इक ने दुसरे के घर पे रुकने का प्रोग्राम बनाया या देर रात मूवी देखने की इच्छा जताई ….. क्या यह सब इक स्त्री और पुरुष मित्र कर सकते है ?

क्या किसी आदमी की बीवी उसकी महिला मित्र को उसके साथ घर में अकेले छोड़ देगी या उन्हें साथ बहार जाने देगी ?

क्या किसी महिला का पति अपनी बीवी को उसके पुरुष मित्र (पराये मर्द) के साथ देर रात घुमने फिरने की आजदी देगा ?

कोई भी समाज चाहे पूरब हो या पश्चिम …आदमी और औरत की मानसिकता इक जैसी ही है …जन्हा औरत दूसरी औरत से इर्ष्या का भाव रखेगी वन्ही आदमी अपनी बीवी को गैर मर्द के साथ देख संदेह करेगा ..फिर दोस्ती की बुनियाद कैसे मजबूत होगी ?

समाज ही नहीं हम सबका देखने और वयवहार करने का तरीका ही खुद कहता है की हम स्त्री पुरुष में भेद करते है …यंहा पर मै कुछ सवाल रखता हूँ जिनके जवाब ही अपने आप सब कुछ कह देंगे …

इक आदमी-औरत आपस में दोस्ती करने से पहले यह बताये ….क्या उसका कोई ऐसा दोस्त है जो समलेंगिक यानी गे/लेस्बियन हो ? क्या वोह किसी गे के साथ अकेला घुमने फिरने जा सकता या सकती है …. क्या वोह फक्र के साथ उसे समाज में अपना दोस्त बता सकते है ? क्या उनके घर वाले …भाई बहन , पति/पत्नी , माँ बाप उनकी दोस्ती किसी समलेंगिक के साथ कबूल कर लेंगे ?

इन सवालो को पूछने का अभिप्राय यह है ….की अगर आप इन सवालों के जवाब में ना या अपनी गर्दन उचका सकते है ..तो इसका मतलब साफ़ है ..आप दोस्ती के माप दंड में सेक्स यानी जेंडर से बायस है …किसी इन्सान की सेक्स लाइफ से आपकी दोस्ती पे असर नहीं पड़ना चाहिए? पर हकीकत में ऐसा नहीं होता ..हम किसी होमो सेक्सुअल से अपने को जोड़ने में शर्म या डर महसूस करते है …. हमारे दिमाग में उनके साथ दोस्ती को लेकर सेक्स की सम्भावना का वजूद होता है ..की हमें उन्हें यह बताना चाहते है ..की हमारी उनमे कोई दिलचस्पी नहीं है …उनके और हमारे ख्यालात सेक्स के मामले में जुदा है …

पर खाली सेक्स के ख्यालात जुदा होने से कोई इन्सान बुरा तो नहीं हो जाता ? हो सकता है उसमे आपके लिए करुना हो , अच्छी दोस्ती निभाने की काबलियत हो ..वोह आपको वक़्त आने पे धोखा ना दे …पर क्या आप उन्हें अपना दोस्त बनायेंगे ?

चलो आप बड़े आजाद विचारो वाले है ..पर आपके उस समाज का क्या ? जिसमे आप रहते है ?

आप अपनी बीवी को बताये की मैं अपने गे (सम्लेंगिंग) फ्रेंड के घर रात में देर तक रुकुंगा या इक महिला अपने पति से कहे की वोह आज किसी पार्टी में अपनी लेस्बियन फ्रेंड के साथ जाएगी …क्या आप बता सकते है …की अधिकतर मामलो में आप को क्या जवाब मिलेगा या क्या प्रतिकिर्या होगी?? …अगर कोई प्रतिकिर्या नहीं भी होती …क्या आप उनके साथ या उनके उन जैसे और दोस्तों में सहज महसूस कर सकते है ?

यह सारे तथ्य चीख चीख कर कह रहे है ..की दोस्ती करना इक बात है …पर उसे निभाना अलग बात ..हम कितनी भी बड़ी बड़ी बाते करे ..जब तक हम अपने पार्टनर को यह विश्वास  ना दिला दे की ..जिस महिला या पुरुष से हमारी दोस्ती है ..हमारा आपस में कोई शारीरिक आकर्षण या सम्बन्ध नहीं ..तब तक ..कोई भी आपकी दोस्ती को मान्यता नहीं देगा …पर यह विश्वास आप तब किसी को दिलायंगे ..जब पहले आप खुद इस परीक्षा में पास हो जाए …

आदमी की बीवी के मन में हमेशा उसकी महिला मित्र को लेकर और किसी स्त्री के पति के मन में उसके पुरुष मित्र को लेकर संशय बना रहेगा …कहने को हम कह ले की मेरी महिला या पुरुष  मित्र है ..पर.. हम उन्हें अपने और दोस्तों की भांति घर में बुला ना सके ..उनके साथ बहार खुलम खुल्ला ना घूम सके …. दोनों अपने रिश्तो का हमेशा औचित्य साबित करे …वन्ही किसी स्त्री के लिए पुरुष की दोस्ती इक राज रखने जैसी हो ..जिसे वोह खुलकर समाज के सामने ना रख सके …फिर दोनों के बीच सच्ची दोस्ती कैसे संभव हो सकती है ?

जितनी सहजता के साथ स्त्री अपनी सहेलियों के साथ और पुरुष अपने दोस्तों के साथ सहज रह सकता है वैसी सहजता स्त्री पुरुष की दोस्ती में नहीं हो पाती …दोनों को अपनी शर्ते , मर्यादा और रिश्ते की लक्ष्मण रेखा खींचनी पड़ती है …..

जब किसी रिश्ते को शर्त , सामाजिक मर्यादा और डर के साथ निभाया जाए ..फिर उस रिश्ते में कभी न कभी गांठ पड़ने की सम्भावना शुरू से बनी रहती है …स्त्री पुरुष में यह गांठ …. दोनों के बीच में सेक्स को लेकर होती है ..जिस दिन यह गांठ सेक्स के आवेग में आजाये ..उसी दिन दोनों अपने को आदम युग के आदम और ईव ही पाते है …

कोई आदमी या औरत कितना भी कहे …की मुझे अपने दोस्त में सिर्फ दोस्त नजर आता है … कोई स्त्री या पुरुष नहीं .. मुझे उसमे कोई आकर्षण नहीं है ….पर हमारे आस पास के लोग यह बात आसानी से हजम नहीं कर सकते ….क्योकि अधिकतर मामलो में आदमी और औरत की दोस्ती प्रेम/वासना पे ही ख़त्म होती है ….

जब तक इक आदमी अपनी महिला मित्र को अपने पुरुष मित्र की तरह से नहीं ले सकता औए कोई औरत अपने पुरुष मित्र को अपनी सहेली की तरह नहीं ले सकती या समाज में उनके साथ उस तरह का वर्ताव नहीं कर सकती ….तब तक उनकी दोस्ती महज इक दिखावा है …

या यूँ भी कह सकते है …की ….दोनी अपने प्रेम प्रसंग के पहले अध्याय को भली भांति पढना और सीखना चाहते है …

सच तो यह है ..इस प्रक्रति ने सिर्फ नर और मादा का निर्माण किया …की दोनों इस श्रष्टि की रचना को आगे बढ़ा सके ….. उसमे रिश्तो की बेड़िया मानव ने डाली ..चाहे उनकी वजह कितनी भी सही हो …जब यह नर और मादा आपस में उस रिश्ते को निभाना चाहते है ..जिसे इस प्रकति ने निभाया ..बस इन रिश्तो के नाम अलग अलग हो जाते है …

क्योकि आदमी और औरत का रिश्ता …. इक फूस और आग की तरह है ..जिनमे इक दिन फूस  को जलना ही पड़ता है!!!

By

Kapil Kumar

Awara Masiha


Note: “Opinions expressed are those of the authors, and are not official statements. Resemblance to any person, incident or place is purely coincidental. Do not copy any content without author permission”

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