तू ही मेरा ग़रूर है ….. Awara Masiha - A Vagabond Angel एक भटकती आत्मा जिसे तलाश है सच की और प्रेम की ! मरने से पहले जी भरकर जीना चाहता हूं ! मर मर कर न तो कल जिया था, न ही कल जिऊंगा ! तू ही मेरा ग़रूर है
ऐसा सोचती है तू की मैंने तुझे नीचा दिखाया है
मौका ऐ दस्तूर पर अक्सर तुझे ज़लील कराया है
कितनी बार तर्क दूंगा मैं अपनी बेगुनाही का
नहीं है होंसला मुझमे तुझे दे सकू भरोसा अपनी सफाई का
ग़र है ऐतबार तुझे मेरी वफ़ा का इतर भी
तो पूछ कर देख अपने दिल से यह सवाल खुद भी
क्या ऐसा करने की जुर्रत भी कोई इन्सान कर सकता है
जिसके सज़दे में उसका सर झुका हो
उसकी तौहीन करने की हिमाक़त वह कैसे कर सकता है
भले ही रेगिस्तान में भटकता मुसाफिर , पानी से दगा कर सकता है
जिस भूखे ने ना निगला हो एक निवाला कई दिन से
वह पकवानों से भरी थाली को ठुकरा सकता है
डूबता हुआ इन्सान , हाथ आये शहतीर को गवां सकता है
अगर कोई इनमे से ऐसी हिमाक़त कर सकता है
फिर भी शायद ऐसी जुर्रत , यह आवारा तुझसे नही कर सकता है
तू तो मान अपमान से बहुत उपर की चीज़ है
मेरा दिल ही जानता है की ,तू मेरी कितनी अजीज़ है
कभी ज़मीन भी आसमान को नीचा दिखा सकती है
क्या बंदे की खता , खुदा को उसके रसूल से गिरा सकती है
भला समुंद की लहरों को भी, कोई नाव डिगा सकती है
ग़र ऐसा है तो मेरी हिमाक़त , मुझसे यह खता करा सकती है
नहीं दूंगा मैं अब और हवाला तुझे उन रातों का
जो तेरे इन्तजार में किस बैचेनी से मैंने काटी थी
कितने बड़े थे वह छोटे से लम्हे , जब जब तू मुझसे दूर जागी थी
कैसे काटता था मैं दिन, की कब यह नामुराद रात होगी
कुछ अल्फाज़ों में ही सही, पर तुझसे मुलाकत होगी
कितना लम्बा सफर मैंने तय किया
सिर्फ तेरी एक झलक पाने को
क्या इससे ज्यादा और भी बतलायूँ, तुझे कुछ समझाने को
फिर भी ना आया हो ऐतबार, तो इस बार मेरा दिल चीर कर देख लेना
पर ऐसी नाग़वारी की फिर से मुझे झूठी सज़ा मत देना
मुझे तो आदत है तुझे बार बार मनाने की
यह तो तेरी अदा है अक्सर मुझसे यूँही रूठ जाने की
मुझे भी आता था मजा तेरे साथ दिल्लगी करने का
भर लेता था हर लम्हा खुशियों से तेरे साथ मस्ती करने का
पर अब दर्द से फट जाता है मेरा दिल , जब तू यह तोहमत लगाती है
मेरी मोहब्बत सिर्फ एक दिखावा है , जब जब तू यह बात दोहराती है
उम्मीदों के रेगिस्तान में भटकते भटके अब थकने लगा हूँ
तू बन चुकी है मृगतृष्णा यह राज़ मैं समझने लगा हूँ
तेरे पास आकर भी तुझे ना पा सकूँगा मेरी ऐसी सज़ा तस्लीम है
तुझसे ही तो मेरे जीने का वजह है
तू नहीं तो फिर यह जिन्दगी बेमज़ा है
चंद सिक्को ,रंगीन कपड़ो या कुछ गज जमींन से
आम इन्सान की हैसियत बदलती होगी
मेरा ग़रूर भी तू , मेरी दौलत भी तू , मेरा वज़ूद भी तू
फिर तू ही बता ,तेरे बिना यह जिन्दगी कैसी होगी ???
ऐसा सोचती है तू की मैंने तुझे नीचा दिखाया है
मौका ऐ दस्तूर पर अक्सर तुझे ज़लील कराया है
कितनी बार तर्क दूंगा मैं अपनी बेगुनाही का
नहीं है होंसला मुझमे तुझे दे सकू भरोसा अपनी सफाई का
ग़र है ऐतबार तुझे मेरी वफ़ा का इतर भी
तो पूछ कर देख अपने दिल से यह सवाल खुद भी
क्या ऐसा करने की जुर्रत भी कोई इन्सान कर सकता है
जिसके सज़दे में उसका सर झुका हो
उसकी तौहीन करने की हिमाक़त वह कैसे कर सकता है
भले ही रेगिस्तान में भटकता मुसाफिर , पानी से दगा कर सकता है
जिस भूखे ने ना निगला हो एक निवाला कई दिन से
वह पकवानों से भरी थाली को ठुकरा सकता है
डूबता हुआ इन्सान , हाथ आये शहतीर को गवां सकता है
अगर कोई इनमे से ऐसी हिमाक़त कर सकता है
फिर भी शायद ऐसी जुर्रत , यह आवारा तुझसे नही कर सकता है
तू तो मान अपमान से बहुत उपर की चीज़ है
मेरा दिल ही जानता है की ,तू मेरी कितनी अजीज़ है
कभी ज़मीन भी आसमान को नीचा दिखा सकती है
क्या बंदे की खता , खुदा को उसके रसूल से गिरा सकती है
भला समुंद की लहरों को भी, कोई नाव डिगा सकती है
ग़र ऐसा है तो मेरी हिमाक़त , मुझसे यह खता करा सकती है
नहीं दूंगा मैं अब और हवाला तुझे उन रातों का
जो तेरे इन्तजार में किस बैचेनी से मैंने काटी थी
कितने बड़े थे वह छोटे से लम्हे , जब जब तू मुझसे दूर जागी थी
कैसे काटता था मैं दिन, की कब यह नामुराद रात होगी
कुछ अल्फाज़ों में ही सही, पर तुझसे मुलाकत होगी
कितना लम्बा सफर मैंने तय किया
सिर्फ तेरी एक झलक पाने को
क्या इससे ज्यादा और भी बतलायूँ, तुझे कुछ समझाने को
फिर भी ना आया हो ऐतबार, तो इस बार मेरा दिल चीर कर देख लेना
पर ऐसी नाग़वारी की फिर से मुझे झूठी सज़ा मत देना
मुझे तो आदत है तुझे बार बार मनाने की
यह तो तेरी अदा है अक्सर मुझसे यूँही रूठ जाने की
मुझे भी आता था मजा तेरे साथ दिल्लगी करने का
भर लेता था हर लम्हा खुशियों से तेरे साथ मस्ती करने का
पर अब दर्द से फट जाता है मेरा दिल , जब तू यह तोहमत लगाती है
मेरी मोहब्बत सिर्फ एक दिखावा है , जब जब तू यह बात दोहराती है
उम्मीदों के रेगिस्तान में भटकते भटके अब थकने लगा हूँ
तू बन चुकी है मृगतृष्णा यह राज़ मैं समझने लगा हूँ
तेरे पास आकर भी तुझे ना पा सकूँगा मेरी ऐसी सज़ा तस्लीम है
तुझसे ही तो मेरे जीने का वजह है
तू नहीं तो फिर यह जिन्दगी बेमज़ा है
चंद सिक्को ,रंगीन कपड़ो या कुछ गज जमींन से
आम इन्सान की हैसियत बदलती होगी
मेरा ग़रूर भी तू , मेरी दौलत भी तू , मेरा वज़ूद भी तू
फिर तू ही बता ,तेरे बिना यह जिन्दगी कैसी होगी ???
By
Kapil Kumar
Awara Masiha
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